श्रेष्ठ कलाकार बनने के लिए देखने और सुनने की दृष्टि और समझ आवश्यक

सागर.डॉक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर के ललित कला एवं प्रदर्शनकारी कला विभाग द्वारा प्रदर्शनकारी कला एवं ललितकला समकालीन विमर्श, प्रवृत्तियां एवं नवाचार विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारम्भ विश्वविद्यालय के अभिमंच सभागार में दीप प्रज्ज्वलन एवं माल्यार्पण के साथ किया गया. उद्घाटन सत्र में देश की ख्यातिलब्ध रंगनिर्देशक, रंग चिंतक एवं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय,नई दिल्ली के पूर्व निदेशक प्रो.देवेन्द्र राज अंकुर एवं उ.प्र.राज्य ललित कला अकादमी के अध्यक्ष एवं प्रख्यात चित्रकार डॉ. सुनील विश्वकर्मा उपस्थित रहे विशिष्ट अतिथि थे. प्रदर्शनकारी कला एवं ललित कला विभाग के अधिष्ठाता डॉ.बलवंत सिंह भदौरिया ने स्वागत वक्तव्य दिया. संगोष्ठी के संयोजक डॉ.नीरज उपाध्याय ने संगोष्ठी का परिचय एवं प्रारूप को विस्तारपूर्वक बताया.विशिष्ट अतिथि प्रो.देवेन्द्र राज अंकुर ने वक्तव्य देते हुए कहा कि सारी कलाएं देखने एवं सुनने से संबंधित हैं। उन्होंने  ‘देखने का स्वाद’ लेख को साझा करते हुए बताया कि चित्र,मूर्तिशिल्प सभी को ठहर कर देखना चाहिए। कलाकृति को विभिन्न दृष्टिकोण से देखने कीआवश्यकता होती है जिसमें समय महत्त्वपूर्ण है.उन्होंने कहा कि हर दर्शक,श्रोता चाहे तो वह एक कलाकार हो सकता है. उन्होंने कहा कि कलाकार की रचना में रचना प्रक्रिया सबसे आवश्यक तत्व है जिसको समझा जाना चाहिए. देश-विदेश के विभिन्न संग्रहालयों में ऐसी अनमोल कलाकृतियाँ हैं जिनको देखना और समझना ही अपने आप में बड़ा कार्य है.आधुनिक और पुरानी रचना विधियों को वर्तमान के प्ररिप्रेक्ष्य में तभी समझा जा सकता है जब हम देखने के आनंद की अनुभूति करें. कलाकार होने के लिए दृष्टि और समझ बहुत आवश्यक तत्व है. 
विशिष्ट अतिथि डॉ.सुनील विश्वकर्मा ने कहा कि आज हम कला के विषय-वस्तु पर चर्चा एवं विमर्श करने हेतु उपस्थित हुए है.हमारे वेदों में 64 कलाओं के संवर्धन के बारे में उल्लेख मिलता है. इनमें बाल बनाने, भोजन परोसने से लेकर चोरी को भी एक कला के रूप में बताया गया है.पद्मश्री राजेश्वरा आचार्य के एक वक्तव्य का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि चोरी को भी एक कला के रूप में कैसे गिना जाता है. भारतीय संस्कृति में कई कलाएं हैं जो हमारी सभ्यता अपने साथ में लेकर चल रही है.उन्होंने कहा कि कला को आध्यात्मिक रूप से लिया जाना चाहिए न कि सिर्फ मनोरंजन के रूप में. कला का स्वाभाविक गुण मनोरजंन है पर इसका मूल्य उद्देश्य लोक कल्याण है.प्रदर्शनकारी कला देखने के बाद लोग अपने जीवन प्रक्रिया को बदल लेते हैं. महात्मा गांधी इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं.उन्होंने प्रेस,प्रिंटिंग से लेकर ए-आई का ज़िक्र करते हुए तकनीकी बदलाव को अपने अनुसार उपयोग करने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि तकनीक को कलाओं का विस्तार करने के लिए उपयोग करें न कि इसको चुनौती मानकर हताश हों। रंगमंच की कला जो तीन घंटे तक चलती थी,सिनेमा के रूप में परिवर्तित होकर आज 15 सेंकड की रील तक आ गई है. यह सभी बदलाव हमारे ही बीच से आ रहे हैं. कलाकार अपनी सोच के अनुसार समाज को विकसित करने में सक्षम होते हैं। यह हमारी जिम्मेदारी है कि समाज को कल्याणकारी दिशा में ले जाएँ.

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