सागर के लोगों में गिरिराजजी की तरह सेवा का भाव है तो यमुना जी की तरह सरलता भी है,

सागर/जीवन मे चार पुरुषार्थ प्रमुख होते हैं।पहले तीन हैं धर्म,अर्थ और काम इन तीनों को करते करते चौथे का भाव स्वतः ही पैदा हो जाता है।चौथा पुरुषार्थ है मोक्ष। लेकिन धर्म करने धन और अन्न कमाने और कामनाओं को पूरा करने की दौड़ में हम इटने थक जाते हैं, ऊब जाते हैं कि निवृत्ति का भाव आने लगता है उसी से मोक्ष की कामना होती है। भाव तो बनता है लेकिन यह पता नहीं होता कि मोक्ष मिलेगा कैसे। मोक्ष की प्राप्ति ही मानव कल्याण है। मोक्ष के लिए प्रेम का भाव निर्मित होना आवश्यक है। प्रेम ही पांचवा पुरुषार्थ है जो अदृश्य है। प्रेम कभी संसार से नहीं हो सकता है। सांसारिक प्रेम तो स्वार्थ पर टिका हुआ है यह हर दिन कम होता है। लेकिन भगवान से हमारे ठाकुर जी से हुआ प्रेम नित प्रति बढ़ता जाता है। इसी प्रेम के भाव को प्रबल करती है साक्षात ठाकुर जी स्वरूप श्रीमद् भागवत कथा। यह बात परम पूज्य कथा व्यास पं.श्री इन्द्रेष उपाध्याय जी ने बालाजी मंदिर परिसर में चल रही सप्त दिवसीय श्रीमद् भागवत कथा के तृतीय दिवस व्यास पीठ से कही। तृतीय दिवस में श्रीमद् भागवत कथा प्रांरभ होने से पूर्व मुख्य यजमान अनुश्री शैलेन्द्र कुमार जैन ने सपरिवार व्यास पीठ की आरती की। 
 

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